तीर्थ का महत्व: श्रद्धा और सात्विकता का संगम
“तीर्थ’ शब्द का उच्चारण मात्र ही हृदय में श्रद्धा का भाव उत्पन्न करता है। यह वह पवित्र स्थान है जहां सात्विकता का वास होता है और तामसिक व राजसिक विचारों का कोई स्थान नहीं होता। ‘तीर्थ’ शब्द की व्युत्पत्ति में यह कहा गया है कि जिस स्थान पर सम्पूर्ण पापों से मुक्ति मिलती है, वही तीर्थ कहलाता है।”
तीर्थ का अर्थ और महत्व
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के व्याकरण विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. भागवत शरण शुक्ल के अनुसार, तीर्थ वह स्थान है जहां पवित्रता और पुण्य का संगम होता है। अथर्ववेद भी इसी बात की पुष्टि करता है कि जो पुण्यशील और यज्ञ कर्म करने वाले विशिष्ट जन होते हैं, वे तीर्थ के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति करते हैं। तीर्थ जाने का अधिकारी वही व्यक्ति होता है जो सभी प्राणियों में समदृष्टि रखता हो, क्रोध से दूर हो, सत्यवादी हो और दृढ़व्रत का पालन करता हो।
तीर्थ का संबंध केवल धार्मिक स्थलों से नहीं है, बल्कि यह आत्मा की शुद्धि और मोक्ष प्राप्ति का मार्ग भी है। महाभारत में भी तीर्थ के महत्व को उजागर किया गया है। ऐसे स्थल, जहां ऋषि-मुनि साधना करते हैं और जो पुण्यजन सेवन करते हैं, तीर्थ कहलाते हैं।
प्रयाग को तीर्थराज कहा जाता है, क्योंकि यह सभी तीर्थों में सर्वोपरि है। स्कन्दपुराण के अनुसार, प्रयाग वह स्थान है जहां प्रजापति ब्रह्मा ने सर्वप्रथम यज्ञ किया था। इसे ब्रह्मा, विष्णु और शिव ने ‘प्रयाग’ नाम दिया। इस स्थल की महत्ता इसके ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्व में निहित है।
- तीर्थ यात्रा का फल तभी मिलता है जब व्यक्ति पवित्र विचारों और सात्विक आचरण के साथ तीर्थ में प्रवेश करता है।
- तीर्थ में जाने वाला व्यक्ति क्रोध, द्वेष और असत्य से दूर हो।
- आत्मा की समानता का भाव और समदृष्टि रखने वाले को ही तीर्थ यात्रा का पूर्ण लाभ मिलता है।
तीर्थ केवल एक स्थल नहीं, बल्कि आत्मिक शुद्धि और पुण्य प्राप्ति का साधन है। यह वह स्थान है जहां श्रद्धा, विश्वास और सात्विकता का संगम होता है। प्रयाग, जिसे तीर्थराज कहा जाता है, इसका प्रमुख उदाहरण है। तीर्थ यात्रा का उद्देश्य केवल स्थान का भ्रमण नहीं, बल्कि आत्मा की शुद्धि और ईश्वर के निकटता की प्राप्ति है।